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100 वर्ष की यात्रा में समाजिक समरसता से समाज परिवर्तन की महत्वपूर्ण कड़ी रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

अमित शर्मा..
1925 में आरएसएस की स्थापना का मूल उद्देश्य ही जातिगत व्यवस्था को समाप्त कर हिन्दू समाज को एकजुट करना था, डॉ हेडगवार ने हिन्दू समाज को बिना जाति व्यवस्था के एकजुट करने का संकल्प 100 वर्ष पहले लिया था, संघ आज तक उस संकल्प को निभा रहा है। देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही मात्र एक ऐसा संगठन है जिसमे जाति आधरित व्यवस्था नही है। यहां पर प्रत्येक स्वयंसेवक सिर्फ और सिर्फ हिन्दू ही होता है। यह सब कहने मात्र का नही है। संघ के सह भोज कार्यक्रमों में सभी कार्यकर्ताओं के घरों से भोजन मांगा के एक जगह एकत्र कर वितरण किया जाता है, भोजन लाना वाले सभी जाति-बिरादरियों के स्वयंसेवक होते है। इसी प्रकार संघ के बड़े बड़े कार्यक्रमो में रोटियां नगर-गांव से एकत्र की जाती है। जिसमे बिना किसी भेद भाव से सभी हिन्दू परिवारों से रोटियां मांगी जाती है।
डॉ. साहब की दृष्टि जाति-आधारित सामाजिक विभाजनों से ऊपर उठकर हिंदू समाज को एकजुट करना था। सामाजिक समरसता, यानी पारस्परिक सम्मान और समानता पर आधारित एक सामाजिक व्यवस्था, का उनका दृष्टिकोण लगभग एक सदी बाद भी आरएसएस के चरित्र और कार्यप्रणाली को आकार दे रहा है।
इस मूलभूत दृष्टिकोण के अनुरूप, सामाजिक समरसता आरएसएस के प्रमुख क्षेत्रों में से एक बनी हुई है। अपनी स्थापना के समय से ही, संगठन ने सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने और जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने पर निरंतर ज़ोर दिया है। समाज के सभी वर्गों की एकता और सम्मान के प्रति यह स्थायी प्रतिबद्धता संघ के मिशन का केंद्रबिंदु बनी हुई है और यही इसके तीव्र विस्तार, व्यापक उपस्थिति और समाज के सभी क्षेत्रों में बढ़ते प्रभाव का एक प्रमुख कारण है।
जमीनी स्तर पर, आरएसएस के स्वयंसेवक समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों से जुड़ने के लिए सक्रिय रूप से काम करते हैं।

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